मेरे सपनों का बेगुसराय
अरुण कुमार
मेरे सपनों का बेगुसराय एक ऐसा जिला होगा जिसकी पूरे सूबे में ही नहीं पूरे मुल्क में अपनी एक वाहिद पहचान हो. एक ऐसा जिला जो पूरे देश के लिए एक कुतुबनुमा की मानिंद हो. जिससे सभी रश्क भी करें और साथ ही मुहब्बत भी. सारा मुल्क जिसे अपना एक रोल माडल माने. जिस पर गरीब और अमीर, अशराफ और अज्लाफ़, पसमांदा, गैर पसमांदा, अगड़ा, पिछड़ा, अति पिछड़ा, दलित ,महादलित सबों का हक हो. जहां सभी सिर्फ प्यार से ही नहीं हक से कहें - हमारा प्यारा बेगुसराय. सारे ज़हान से अच्छा हमारा अपना बेगुसराय.
कभी यह जिला हक की लड़ाई के लिए, अपनी शहादतों के लिए मशहूर हुआ करता था. इतिहास गवाह है कि जब पूरे सूबे में साबिक वज़ीरे-आला डाक्टर श्रीकृष्ण सिंह की तूती बोला करती थी और कोई उनके खिलाफ आवाज़ उठाने की सोच भी नहीं सकता था हमारे जिले के और उनकी काबीना के ही वजीर रहे मरहूम रामचरित्र सिंह ने उनके खिलाफ बगावत की आवाज़ बुलंद की. जिले की बहादुर जनता ने भी उस बागी को अपना खुला समर्थन देकर तत्कालीन सल्तनत को यह पैगाम दे दिया कि तख़्त-नशीं हमें अंधा भक्त समझने की गलती न करें. हमारे जिले ने समाजी निजाम को बदलने वाली तंजीमों के वो गौरवशाली,तूफानी दिन भी देखे हैं जहां सामाजिक बुराइयों के खिलाफ - जातीय भेद-भाव, दमन और उत्पीडन, विधवा विवाह, ज़मींदारी अत्याचार - के खिलाफ सीना तान कर हमारे जिले के लोग खड़े होते रहे. हमारे जिले के बहादुर लोगों के संघर्ष का नतीजा ही रहा कि सामाजिक न्याय के नारे वाली सरकार/ सरकारों के आने के बहुत पहले से ही हमने इन बुराइयों को काफी पीछे छोड़ दिया था. जो कुछ बचा भी था वो थे उन बुराइयों के ध्वन्शावशेष. यूँ तो परिवर्तन हमेशा नीचे से ऊपर की ओर हुआ करते हैं मगर हमारी बदकिस्मती है कि हमें आज वो दिन देखने पड़ रहे हैं जब हमारी आवाज़ उन जगहों पर पुर-असर नहीं हो पा रही हैं जहां उनका असरदार होना लाजिमी है.
जिले में पंजाब की तरह पांच नदियाँ हैं - गंगा, गंडक, बाया, बैंटि और बलान. लम्बे अरसे से इन नदियों के कटाव के शिकार हो रहे हैं किनारे के गांवों के लोग. मगर हमें इस बात की कोई सूचना नहीं है कि इन विस्थापित कटाव-पीड़ितों के पुनर्वास की लम्बे समय से कोई ऐसी कोशिश हुई हो जो उनके दुखों को पूरी तरह से समाप्त कर सके. यह तो एक बात हुई. कई नदियों को भी मानव-निर्मित कहर का शिकार होना पड़ा है. बाया उनमे से ऐसी ही एक नदी है. उसी तरह काबर झील का भी सवाल है. सरकार की ओर से इसे पक्षी आश्रयणी घोषित किया गया. मगर आज इसमें पानी ही नहीं दिख रहा है. यह सब हुआ इलाके के लोगों के द्वारा इस झील के साथ छेड-छाड़ की वजह से. नतीजा यह है कि इस पंचनद जिले में भी गर्मियों के दिनों में चापा-कलों में अंडर-ग्राउंड वाटर-टेबल इस क़दर नीचे चला जाता है कि स्नान करना भी वर्जिश करने की तरह का एक कष्टसाध्य काम बन जाता है. आज जब चारो ओर पर्यावरण रक्षा की बातें हो रही हैं हमारे यहाँ इस दिशा में कोई काम होता नहीं नज़र आ रहा है.
उसी तरह यह भी गौर करने की बात है कि हमारे बाप-दादों ने अपनी कीमती ज़मीनें कभी मोकामा के राजेंदर पुल, बरौनी का ताप -विद्युत् कारखाना, गरहरा के रेलवे लोको-शेड और ट्रांशिप्मेंट यार्ड सहित बरौनी आयल रीफाइनरी, मखनशाला, बरौनी खाद कारखाना और बरौनी औद्योगिक क्षेत्र के निर्माण के लिए यह सोच कर दी थी कि ये बकौल पंडित जवाहरलाल नेहरु - आधुनिक भारत के मंदिर साबित होंगे और हमारे इलाके का विकास होगा. उस दिशा में हमारे अनुभव काफी दुखद रहे हैं.
हमारे यहाँ बिजली घर जरुर है मगर हमें बिजली नहीं. हमारी जमीनें इनके फ्लाई -एश से बंज़र जरुर हो गईं मगर हमारे घर रौशन नहीं हो सके. हमारे फेफड़े इनके दूषण से छलनी हो गए. हमारे किसान अपने इन खेतों की फसलों से मरहूम जरुर हो गए मगर हमें मिला क्या ? मीलों फैला गरहरा यार्ड और रेलवे की अन्य बेकार पड़ी जगहें, कभी गुलज़ार रहा खाद कारखाना आज एक औद्योगिक कब्रिस्तान की तरह दिख रहा है. हमने अपनी जमीनें भी खोई, फसलों से महरूम हुए और आज इन कब्रिस्तानों का दीदार करने को मजबूर भी हैं.
हमारी सांस्कृतिक विरासतों की ओर नज़र डालें तो पता चलेगा कि हमारे ग्रामीण शिल्प ध्वस्त हो गए, शिल्पकार जातियां पैमाल हो गईं, कृषि पर आधारित हमारी ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था ध्वस्त हो गयी और बदले में हमें मिला उद्योगों का कब्रिस्तान. इस बीच हमारे लोगों की जीवन शैली बदल गई और वे पुराने पेशों के लायक भी नहीं बचे. ना खुदा ही मिला ना विशाले सनम वाली हालत हो गई हमारी.
आज हालत ये हैं कि यदि जिले से बाहर रह कर काम करने वाले हमारे भाई -बंधुओं, बेटे-बेटियों - जो ज्यादातर या तो ठेकेदारी कर रहे हैं या फिर मजदूरी कर रहे हैं, एक छोटा सा हिस्सा प्रोफेस्स्नल भी है - यदि नके द्वारा कमाए गए पैसे हमारे जिले में ना आयें तो हम शायद कंगाल हो जाएँ. हम अपने बूते तो अपनी तरक्की के सपने नहीं ही पाल सकते हैं.
क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे जिले या हमारे शहरों - कस्बों की कोई पहचान भी कभी क्यों नहीं बन पाई ? हमारे शहरो का विकास ना तो किसी शैक्षणिक शहर के रूप में हो सका, ना किसी औद्योगिक शहर के रूप में, ना हम एक चिकित्षा केंद्र के रूप में मशहूर एक शहर के रूप ही विकसित हो सके और ना ही टेम्पल सिटी के रूप में. हमारे शहरों और कस्बों की कोई पहचान ही नहीं बन पाई.
मगर चाचा ग़ालिब ने शायद सच ही कहा है - "तनज्जुल की हद देखना चाहता हूँ/ शायद वहीँ हो तरक्की का जीना" . आज जब हम अपने आस-पास देखते हैं तो हमें अपने आप पर सोचने को बाध्य होना पड़ता है. सरकार की कोशिशें, विकास योजनायें हमें विकास की राह पर चलने में थोड़ी-बहुत मदद जरुर कर सकती हैं हमारे जिले के विकास का फैसला जिले की जनता को ही करना है. जिला या राज्य प्रशासन हमें हमारी जरूरतों के लिए तभी कारगर मदद कर सकता है जब हम उनके सामने अपनी एक योजना पेश करें.
हमें देखना होगा कि हम अपने जिले को एक ऐतिहासिक तरीके से दुनिया के सामने पेश करें. हमारे यहाँ सांप्रदायिक सौहार्द के तवारीखी मस्जिदें हैं जो हमारे गौरवशाली इतिहास को दर्ज करती हैं. हमें इन्हें डिस्प्ले करना होगा. हमें काबर झील को डिस्प्ले कर उसके इर्द-गिर्द एक टूरिज्म पर आधारित एक अर्थ -व्यवस्था निर्मित करनी होगी. हमें औद्योगिक कब्रिस्तान के रूप में मौजूद ज़मीनों के बारे में सोचना पड़ेगा और उनके सार्थक उपयोग की योजनायों के कार्यान्वयन की रणनीति बनानी होगी. साथ ही हमें पडोसी जिलों के लोगों को भी अपने जिलों के विकास के लिए प्रेरित करना होगा और उन्हें मदद करनी होगी ताकि उनके यहाँ भी सम्यक विकास हो सके और हमारे जिले की अर्थ-व्यवस्था पर पडोसी जिलों के अविकास का नकारात्मक प्रभाव नहीं पडे. हमे इस द्व्न्दात्माक्ता को समझने की जरुरत है तभी हम पडोसी जिलो के साथ भी साहचर्य और भाईचारा निभा सकेंगे.
हमे अपनी खेती को समयानुकुल सुधारना होगा. इसे पर्यावरण के मुताबिक ढालते हुए मुनाफे की खेती में बदलने की तदबीर करनी होगी. पंजाब और हरियाणा की हरित क्रांति से सबक लेते हुए जहां जल के अत्यधिक दोहन से और रासायनिक खादों के अनियंत्रित प्रयोग की वजह से आज दुष्परिणाम झेलने पड़ रहे हैं. वहां की ज़मीन बंज़र हो चुकी है. भू जल स्तर इतना गिर चुका है की धरती में क्षारीयता बढ़ गयी है. हमें ओर्गानिक खेती के नए चलन को भुनाना पड़ेगा ताकि किसानों को पैसे भी मिलें और हमारे पर्यावरण और खेत भी बचे रह सकें.
हस्त-शिल्प को जिन्दा कर इन्हें बाज़ार से जोड़ कर इसका लाभ उठाने की भी कोशिश हमें करनी पड़ेगी. आज इसका भी बड़ा व्यापार है. हमें इसका लाभ उठाना ही होगा. कला और साहित्य के क्षेत्र में भी हमें अपनी प्रतिभाओं को प्रश्रय देना होगा. कला के विभिन्न आयामों को विकषित करना होगा. फिल्म और नाट्य कलाओं को भी हमें आगे बढ़ाना होगा. तभी हम एक आदर्श जिले के रूप में विकषित हो सकेंगे.
आज एक कोशिश चल रही है कि केंद्र सरकार की ओर से एक विद्या केंद्र औद्योगिक कब्रिस्तान के रूप में पड़े एक संस्थान की ज़मीन पर खुलवाई जा सके. इसके लिए विभिन्न स्रोतों से लॉबी की जा रही है. अभी यह प्रारंभिक अवस्था में ही है. यदि यह कोशिश सफल होती है तो शैक्षणिक केंद्र के रूप में जिले के विकाश में मदद मिलेगी.
किसी भी जिले या शहर के विकास की सबसे पहली शर्त होती है कि वहां लोगों के मिलने जुलने की एक ऐसी जगह हो जहां ठंडी काफी की घूँट भरते हुए बुध्धिजीवी गर्मागर्म बहसे कर सकें. मेरे सपनों के जिले में असहमति एक वैध और सम्मानजनक प्रयास माना जायेगा अपराध और वैर नहीं ताकि जिले में विचारों का द्वन्द चलता रहे और वैचारिक रूप से हमारा जिला, उसका शहर और उसके कसबे एक जीवंत स्थल बने रह सकें.
मगर इस सब के लिए हम तमाम जिलावासियों को अपने इर्द गिर्द बनाये गए घेरों को तोड़ कर ज़िले के विकास के लिए प्राणे फ़ार्मुलों से बहार निकल कर नए तरीके से सोचने और काम करने के लिए आगे आना होगा। क्या हम सब उसके लिए तैयार हैं ?
(इस लेख के लेखक इस जिले के ही निवासी हैं. ये बिहार श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के महासचिव है.सम्प्रति भारतीय प्रेस परिषद् (११वीं) के सदस्य हैं. यह लेख जिले की २९ वीं वर्षगांठ पर प्रकाशित होने वाली स्मारिका के लिए विशेष अनुरोध पर लिखी गयी थी )
अरुण कुमार
मेरे सपनों का बेगुसराय एक ऐसा जिला होगा जिसकी पूरे सूबे में ही नहीं पूरे मुल्क में अपनी एक वाहिद पहचान हो. एक ऐसा जिला जो पूरे देश के लिए एक कुतुबनुमा की मानिंद हो. जिससे सभी रश्क भी करें और साथ ही मुहब्बत भी. सारा मुल्क जिसे अपना एक रोल माडल माने. जिस पर गरीब और अमीर, अशराफ और अज्लाफ़, पसमांदा, गैर पसमांदा, अगड़ा, पिछड़ा, अति पिछड़ा, दलित ,महादलित सबों का हक हो. जहां सभी सिर्फ प्यार से ही नहीं हक से कहें - हमारा प्यारा बेगुसराय. सारे ज़हान से अच्छा हमारा अपना बेगुसराय.
कभी यह जिला हक की लड़ाई के लिए, अपनी शहादतों के लिए मशहूर हुआ करता था. इतिहास गवाह है कि जब पूरे सूबे में साबिक वज़ीरे-आला डाक्टर श्रीकृष्ण सिंह की तूती बोला करती थी और कोई उनके खिलाफ आवाज़ उठाने की सोच भी नहीं सकता था हमारे जिले के और उनकी काबीना के ही वजीर रहे मरहूम रामचरित्र सिंह ने उनके खिलाफ बगावत की आवाज़ बुलंद की. जिले की बहादुर जनता ने भी उस बागी को अपना खुला समर्थन देकर तत्कालीन सल्तनत को यह पैगाम दे दिया कि तख़्त-नशीं हमें अंधा भक्त समझने की गलती न करें. हमारे जिले ने समाजी निजाम को बदलने वाली तंजीमों के वो गौरवशाली,तूफानी दिन भी देखे हैं जहां सामाजिक बुराइयों के खिलाफ - जातीय भेद-भाव, दमन और उत्पीडन, विधवा विवाह, ज़मींदारी अत्याचार - के खिलाफ सीना तान कर हमारे जिले के लोग खड़े होते रहे. हमारे जिले के बहादुर लोगों के संघर्ष का नतीजा ही रहा कि सामाजिक न्याय के नारे वाली सरकार/ सरकारों के आने के बहुत पहले से ही हमने इन बुराइयों को काफी पीछे छोड़ दिया था. जो कुछ बचा भी था वो थे उन बुराइयों के ध्वन्शावशेष. यूँ तो परिवर्तन हमेशा नीचे से ऊपर की ओर हुआ करते हैं मगर हमारी बदकिस्मती है कि हमें आज वो दिन देखने पड़ रहे हैं जब हमारी आवाज़ उन जगहों पर पुर-असर नहीं हो पा रही हैं जहां उनका असरदार होना लाजिमी है.
जिले में पंजाब की तरह पांच नदियाँ हैं - गंगा, गंडक, बाया, बैंटि और बलान. लम्बे अरसे से इन नदियों के कटाव के शिकार हो रहे हैं किनारे के गांवों के लोग. मगर हमें इस बात की कोई सूचना नहीं है कि इन विस्थापित कटाव-पीड़ितों के पुनर्वास की लम्बे समय से कोई ऐसी कोशिश हुई हो जो उनके दुखों को पूरी तरह से समाप्त कर सके. यह तो एक बात हुई. कई नदियों को भी मानव-निर्मित कहर का शिकार होना पड़ा है. बाया उनमे से ऐसी ही एक नदी है. उसी तरह काबर झील का भी सवाल है. सरकार की ओर से इसे पक्षी आश्रयणी घोषित किया गया. मगर आज इसमें पानी ही नहीं दिख रहा है. यह सब हुआ इलाके के लोगों के द्वारा इस झील के साथ छेड-छाड़ की वजह से. नतीजा यह है कि इस पंचनद जिले में भी गर्मियों के दिनों में चापा-कलों में अंडर-ग्राउंड वाटर-टेबल इस क़दर नीचे चला जाता है कि स्नान करना भी वर्जिश करने की तरह का एक कष्टसाध्य काम बन जाता है. आज जब चारो ओर पर्यावरण रक्षा की बातें हो रही हैं हमारे यहाँ इस दिशा में कोई काम होता नहीं नज़र आ रहा है.
उसी तरह यह भी गौर करने की बात है कि हमारे बाप-दादों ने अपनी कीमती ज़मीनें कभी मोकामा के राजेंदर पुल, बरौनी का ताप -विद्युत् कारखाना, गरहरा के रेलवे लोको-शेड और ट्रांशिप्मेंट यार्ड सहित बरौनी आयल रीफाइनरी, मखनशाला, बरौनी खाद कारखाना और बरौनी औद्योगिक क्षेत्र के निर्माण के लिए यह सोच कर दी थी कि ये बकौल पंडित जवाहरलाल नेहरु - आधुनिक भारत के मंदिर साबित होंगे और हमारे इलाके का विकास होगा. उस दिशा में हमारे अनुभव काफी दुखद रहे हैं.
हमारे यहाँ बिजली घर जरुर है मगर हमें बिजली नहीं. हमारी जमीनें इनके फ्लाई -एश से बंज़र जरुर हो गईं मगर हमारे घर रौशन नहीं हो सके. हमारे फेफड़े इनके दूषण से छलनी हो गए. हमारे किसान अपने इन खेतों की फसलों से मरहूम जरुर हो गए मगर हमें मिला क्या ? मीलों फैला गरहरा यार्ड और रेलवे की अन्य बेकार पड़ी जगहें, कभी गुलज़ार रहा खाद कारखाना आज एक औद्योगिक कब्रिस्तान की तरह दिख रहा है. हमने अपनी जमीनें भी खोई, फसलों से महरूम हुए और आज इन कब्रिस्तानों का दीदार करने को मजबूर भी हैं.
हमारी सांस्कृतिक विरासतों की ओर नज़र डालें तो पता चलेगा कि हमारे ग्रामीण शिल्प ध्वस्त हो गए, शिल्पकार जातियां पैमाल हो गईं, कृषि पर आधारित हमारी ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था ध्वस्त हो गयी और बदले में हमें मिला उद्योगों का कब्रिस्तान. इस बीच हमारे लोगों की जीवन शैली बदल गई और वे पुराने पेशों के लायक भी नहीं बचे. ना खुदा ही मिला ना विशाले सनम वाली हालत हो गई हमारी.
आज हालत ये हैं कि यदि जिले से बाहर रह कर काम करने वाले हमारे भाई -बंधुओं, बेटे-बेटियों - जो ज्यादातर या तो ठेकेदारी कर रहे हैं या फिर मजदूरी कर रहे हैं, एक छोटा सा हिस्सा प्रोफेस्स्नल भी है - यदि नके द्वारा कमाए गए पैसे हमारे जिले में ना आयें तो हम शायद कंगाल हो जाएँ. हम अपने बूते तो अपनी तरक्की के सपने नहीं ही पाल सकते हैं.
क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे जिले या हमारे शहरों - कस्बों की कोई पहचान भी कभी क्यों नहीं बन पाई ? हमारे शहरो का विकास ना तो किसी शैक्षणिक शहर के रूप में हो सका, ना किसी औद्योगिक शहर के रूप में, ना हम एक चिकित्षा केंद्र के रूप में मशहूर एक शहर के रूप ही विकसित हो सके और ना ही टेम्पल सिटी के रूप में. हमारे शहरों और कस्बों की कोई पहचान ही नहीं बन पाई.
मगर चाचा ग़ालिब ने शायद सच ही कहा है - "तनज्जुल की हद देखना चाहता हूँ/ शायद वहीँ हो तरक्की का जीना" . आज जब हम अपने आस-पास देखते हैं तो हमें अपने आप पर सोचने को बाध्य होना पड़ता है. सरकार की कोशिशें, विकास योजनायें हमें विकास की राह पर चलने में थोड़ी-बहुत मदद जरुर कर सकती हैं हमारे जिले के विकास का फैसला जिले की जनता को ही करना है. जिला या राज्य प्रशासन हमें हमारी जरूरतों के लिए तभी कारगर मदद कर सकता है जब हम उनके सामने अपनी एक योजना पेश करें.
हमें देखना होगा कि हम अपने जिले को एक ऐतिहासिक तरीके से दुनिया के सामने पेश करें. हमारे यहाँ सांप्रदायिक सौहार्द के तवारीखी मस्जिदें हैं जो हमारे गौरवशाली इतिहास को दर्ज करती हैं. हमें इन्हें डिस्प्ले करना होगा. हमें काबर झील को डिस्प्ले कर उसके इर्द-गिर्द एक टूरिज्म पर आधारित एक अर्थ -व्यवस्था निर्मित करनी होगी. हमें औद्योगिक कब्रिस्तान के रूप में मौजूद ज़मीनों के बारे में सोचना पड़ेगा और उनके सार्थक उपयोग की योजनायों के कार्यान्वयन की रणनीति बनानी होगी. साथ ही हमें पडोसी जिलों के लोगों को भी अपने जिलों के विकास के लिए प्रेरित करना होगा और उन्हें मदद करनी होगी ताकि उनके यहाँ भी सम्यक विकास हो सके और हमारे जिले की अर्थ-व्यवस्था पर पडोसी जिलों के अविकास का नकारात्मक प्रभाव नहीं पडे. हमे इस द्व्न्दात्माक्ता को समझने की जरुरत है तभी हम पडोसी जिलो के साथ भी साहचर्य और भाईचारा निभा सकेंगे.
हमे अपनी खेती को समयानुकुल सुधारना होगा. इसे पर्यावरण के मुताबिक ढालते हुए मुनाफे की खेती में बदलने की तदबीर करनी होगी. पंजाब और हरियाणा की हरित क्रांति से सबक लेते हुए जहां जल के अत्यधिक दोहन से और रासायनिक खादों के अनियंत्रित प्रयोग की वजह से आज दुष्परिणाम झेलने पड़ रहे हैं. वहां की ज़मीन बंज़र हो चुकी है. भू जल स्तर इतना गिर चुका है की धरती में क्षारीयता बढ़ गयी है. हमें ओर्गानिक खेती के नए चलन को भुनाना पड़ेगा ताकि किसानों को पैसे भी मिलें और हमारे पर्यावरण और खेत भी बचे रह सकें.
हस्त-शिल्प को जिन्दा कर इन्हें बाज़ार से जोड़ कर इसका लाभ उठाने की भी कोशिश हमें करनी पड़ेगी. आज इसका भी बड़ा व्यापार है. हमें इसका लाभ उठाना ही होगा. कला और साहित्य के क्षेत्र में भी हमें अपनी प्रतिभाओं को प्रश्रय देना होगा. कला के विभिन्न आयामों को विकषित करना होगा. फिल्म और नाट्य कलाओं को भी हमें आगे बढ़ाना होगा. तभी हम एक आदर्श जिले के रूप में विकषित हो सकेंगे.
आज एक कोशिश चल रही है कि केंद्र सरकार की ओर से एक विद्या केंद्र औद्योगिक कब्रिस्तान के रूप में पड़े एक संस्थान की ज़मीन पर खुलवाई जा सके. इसके लिए विभिन्न स्रोतों से लॉबी की जा रही है. अभी यह प्रारंभिक अवस्था में ही है. यदि यह कोशिश सफल होती है तो शैक्षणिक केंद्र के रूप में जिले के विकाश में मदद मिलेगी.
किसी भी जिले या शहर के विकास की सबसे पहली शर्त होती है कि वहां लोगों के मिलने जुलने की एक ऐसी जगह हो जहां ठंडी काफी की घूँट भरते हुए बुध्धिजीवी गर्मागर्म बहसे कर सकें. मेरे सपनों के जिले में असहमति एक वैध और सम्मानजनक प्रयास माना जायेगा अपराध और वैर नहीं ताकि जिले में विचारों का द्वन्द चलता रहे और वैचारिक रूप से हमारा जिला, उसका शहर और उसके कसबे एक जीवंत स्थल बने रह सकें.
मगर इस सब के लिए हम तमाम जिलावासियों को अपने इर्द गिर्द बनाये गए घेरों को तोड़ कर ज़िले के विकास के लिए प्राणे फ़ार्मुलों से बहार निकल कर नए तरीके से सोचने और काम करने के लिए आगे आना होगा। क्या हम सब उसके लिए तैयार हैं ?
(इस लेख के लेखक इस जिले के ही निवासी हैं. ये बिहार श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के महासचिव है.सम्प्रति भारतीय प्रेस परिषद् (११वीं) के सदस्य हैं. यह लेख जिले की २९ वीं वर्षगांठ पर प्रकाशित होने वाली स्मारिका के लिए विशेष अनुरोध पर लिखी गयी थी )
No comments:
Post a Comment